हकीकत: एक ऐसी वॉर फिल्म, जिसने भारत की हार न मानने की ताकत को दिखाया – Haqeeqat a war film forged in Indias steely defiance in defeat dharmendra balraj sahni chetan anand tmovp

हमारी पुरानी हिंदी फिल्मों को याद करने की सीरीज में आज हम फिल्म ‘हकीकत’ को याद कर रहे हैं. इस एपिक फिल्म ने 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध में भारत की हार के दर्द पर मरहम लगाने जैसा काम किया था.
रेट्रो रिव्यू: हकीकत (1964)
कास्ट: बलराज साहनी, धर्मेंद्र, प्रिया राजवंश, विजय आनंद, संजय खान, सुधीर
डायरेक्टर: चेतन आनंद
म्यूजिक/लिरिक्स: मदन मोहन, कैफी आजमी
बॉक्स ऑफिस स्टेटस: हिट
कहां देख सकते हैं: यूट्यूब
क्यों देखना चाहिए: लद्दाख में शूट हुए बढ़िया और खतरनाक वॉर सीन्स के लिए
कहानी का सार: हर हार में एक जीत है
‘हकीकत’ एक फिल्म नहीं है. ये बॉलीवुड में 1964 के बाद आई लगभग हर वॉर फिल्म के लिए टेम्पलेट है. बॉर्डर, हकीकत है. एलओसी कारगिल, हकीकत है. यहां तक कि हाल ही में आई तमिल बायोपिक अमरण भी हकीकत है. जैसे एक युग की शुरुआत जो बताते हैं कि उससे पहले और बाद में क्या हुआ था. भारतीय सिनेमा के इतिहास में हकीकत एक निर्णयायक पल है.
भारत की सभी वॉर फिल्मों में एक सिंपल स्टाइलशीट को फॉलो किया जाता है. वो फिल्म में शामिल किरदारों का परिचय देते हैं, इनमें ज्यादातर युवा लड़के होते हैं, क्योंकि युद्ध मुख्य रूप से एक ट्रैजडी है, जहां आपको अपने युवाओं को दफनाना पड़ता है. फिल्म की कहानी इन लड़कों की बैकस्टोरी से मिलकर बनी होती है. इसमें उनके सपनों और उम्मीदों का तड़का लगाया जाता है. फिर इसमें प्यार, अलगाव और मिलिट्री कैंप में भाईचार से जुड़े गाने डाले जाते हैं. और फिर इसमें युद्ध होता है, एक निर्दयी, अमानवीय और क्रूर दुश्मन के साथ. जैसा कि हकीकत के डायरेक्टर चेतन आनंद ने सत्यजीत रे से कहा था, एक वॉर फिल्म जिंदगी, प्यार, नफरत और मौत का मोजेक है.
चेतन आनंद ने इस मोजेक को दार्शनिक सुंदरता के साथ बनाया था. इसी के साथ उन्होंने तबाही के बीच कविताएं गढ़ीं, वीरता की गाथा में दिल छूने वाले पल जोड़े. इसके गानों ने दर्द और त्याग को एक ऊंचाई पर ले जाकर खड़ा कर दिया. और फिर इसमें दो घंटे तक बिना किसी फिल्टर के युद्ध दिखाया. ये युद्ध इंटेंसिटी से भरा था. इसमें ब्लैक और व्हाइट लद्दाख के दूर-दूर तक फैले मरुस्थल, ऊंचे पहाड़ और गहरी झीलें थीं. अगर इसमें ट्रैजडी न होती तो हकीकत आपको वॉर के प्यार में डालने का दम रखती थी.
फिल्म की स्क्रिप्ट
एक हारे हुए युद्ध को दोबारा जीना नामुमकिन बात है. ये आपके निजी दुख की तरह होता है. इसकी शर्मिंदगी आपके मन को कचोटती है. इसका दर्द आपको किसी सांप की तरह डसता है. तो चेतन आनंद का 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की हार पर फिल्म बनाना बेहद हिम्मत की बात थी. और वो भी तब जब लोगों के जख्म हरे थे. ये उन जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा था. लेकिन चेतन आनंद ने कुछ सैनिकों को उठाकर हार, मौत और पीछे हटने में भी सेना की बहादुरी और वीरता को दिखाया. फिल्म की कहानी रेजांग ला में हुए युद्ध पर कुछ हद तक आधारित थी. हकीकत, लद्दाख में चीन के सैनिकों के सामने बचे मुट्ठीभर भारतीय सैनिकों के बहादुरी से खड़े रहने को दिखाती है.
रेजांग ला का युद्ध 13 कुमाऊं सैनिकों ने लड़ा था. उनके लीडर मेजर शैतान सिंह भाटी थे. 18 नवंबर 1962 में जमा देने वाली ठंड में हमारे वीर सैनिक चीन से युद्ध लड़ रहे थे. इस युद्ध में सवेरा होने से पहले ही चीनी सैनिकों ने हमला कर दिया था. ऐसे में 120 से 140 भारतीय सैनिकों ने अपने आखिरी दम तक लगभग 5 घंटों तक युद्ध किया था. मेजर शैतान सिंह को इस लड़ाई में कई गोलियां लगी थीं, लेकिन उन्होंने पीछे हटने से मना कर दिया था. उनके साहस के लिए उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था. उनकी वीरता की गाथा आज भी राजस्थान के गांवों में सुनाई जाती है.
हकीकत में धर्मेंद्र का किरदार कैप्टन बहादुर सिंह, एक वीरता भरी लड़ाई शुरू करता है, जिससे एक भारतीय बटालियन को एक कैंप से निकलने का मौका मिलता है. इस बटालियन पर हमले का खतरा है. कैप्टन बहादुर सिंह की इस लड़ाई में उसका साथ एक सिपाही और एक लोकल लड़की (प्रिया राजवंश) देती है, जिससे वो शादी करना चाहता है.
लेकिन हकीकत एक राजनैतिक फिल्म भी है. इसमें चीन की तरफ से अचानक हुए क्रूर युद्ध के प्रति भारत की घिन को भी दिखाया गया है. एक सीन में बलराज साहनी का किरदार विश्वासघात के लिए चीन की कड़ी आलोचना भी करता है. वो कहता है, ‘हमने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनका साथ दिया. हमने शांति के पांच सिद्धतों का ख्याल रखा. हमने उनके लीडर्स (चीन के मुखिया Zhou Enlai) के लिए रेड कारपेट बिछाकर उनका स्वागत किया, यहां तक कि उन्हें हमारे सैनिकों को वीरता के रंग में रंगने के लिए भी कहा. और वो उन्हीं सैनिकों के सीने पर गोली मार रहे हैं. फिल्म में बलराज साहनी के इस सीन में असल जिंदगी की तस्वीरें भी दिखाई गई थीं.
कैफी आजमी की कविताएं
1962 की लड़ाई में भारत की शर्मिंदगी भरी हार से भारतीय इतिहास को दो बेहतरीन गाने मिले. स्वर कोकिला रहीं लता मंगेशकर के गाने ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. एक दिल छूने वाली लोरी, जिसने सुनने वालों के दिलों में क्रांति की भावना भरी. किसी दिन हम राइटर कवि प्रदीप और कम्पोजर सी रामचंद्र की लेगेसी को किसी दिन जरूर री-विजिट करेंगे. फिलहाल कैफी आजमी को सिनेमा के दो सबसे बेहतरीन देशभक्ति गीत लिखने के लिए सेलिब्रेट किया जाना जरूरत है. दोनों ही गाने उन्होंने चेतन आनंद की फिल्मों में दिए थे.
हकीकत का अंत कैफी आजमी के लिखे ‘कर चले हम फिदा’ के साथ होता है. शहीदों के नाम लिखे इस गीत में देशभक्ति के जोश को ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गाने ने ही मैच किया है, जिसे भगत सिंह ने शहीद (1965) फिल्म में गाया था. हर लाइन त्याग के खून में डुबोई, वीरता के रस से भरी, पूरी तरह से देशभक्ति को भावना की उजागर करती है. ये अंतरा ही देखिए:
सांस थमती गई, नब्ज जानती गई
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया
कट गए सिर हमारे तो कुछ गम नहीं
सर हिमालय का हमने न झुकने दिया
मरते मरते रहा बांकपन साथियों
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों
हकीकत के फाइनल क्रेडिट के आने से पहले सैनिकों के पीछे भारत लिखा आता है. इन जोशीले विजुअल्स के साथ कैफी आजमी के लफ्ज मोहम्मद रफी की आवाज में ये गाना कभी हार न मानने का जज्बा आपके अंदर भरता है. ये गाना बहादुर भारतीयों के लिए एक उपयुक्त श्रद्धांजलि, लचीलेपन की एक सिम्फनी, शहादत के आलिंगन के लिए एक साहसी निमंत्रण था.