operation sindoor – बुद्ध का देश और युद्ध की राह?…ऑपरेशन सिंदूर में छिपा है शांति का अग्निपथ – operation sindoor India Pakistan war and ahimsa message of mahatma buddha ntcpvp

जेतवन से गुजरते तथागत को खौफनाक और कड़क आवाज सुनाई दी. ठहर जा! ठहर जा, जहां है वहीं रुक जा. तथागत ने ये आवाज सुनीं और रुक गए. फिर उन्होंने निर्भीकता से कहा- ‘मैं तो ठहर गया, तू कब ठहरेगा. इतने निर्भीक, शांत लेकिन आत्मविश्वास और साहस से भरे वचन उसने कभी नहीं सुने थे. लिहाजा वह घनी झाड़ियों से निकलकर बाहर आया. वीभत्स चेहरा, भीमकाय शरीर और गले में उंगलियों की माला… डाकू अंगुलिमाल नाम था उसका. हर रोज लोगों को लूटकर मार देने वाला और फिर उनकी उंगलियों की माला बनाकर पहन लेना ही अंगुलिमाल का काम था और आज उसने तथागत बुद्ध का ही रास्ता रोकने की कोशिश की थी.
तथागत ने कैसे बदला अंगुलिमाल का जीवन?
लेकिन, बुद्ध की निर्भीकता देखकर, उनका पलटकर जवाब देने का साहस देखकर, अंगुलिमाल उनकी निर्भीकता से निहाल हो गया. तथागत ने उसे भिक्खु धम्म में शामिल कर लिया. याद रखिए बुद्ध ने निर्भीकता से सामना किया और बुलंद आवाज में जवाब दिया. यानी बुद्ध दबे नहीं, डरे नहीं और जब सामने वाले ने करुणा को पहचाना तब बुद्ध ने उसे अपना लिया. इस कहानी में बुद्ध अहिंसा की महानता का बहुत बड़ा उपदेश देते हैं, लेकिन इस कथा का मर्म सिर्फ अहिंसा तक ही सीमित नहीं है. इस कथा में कुछ अन्य शब्द जैसे निर्भीकता और साहस भी हैं. सामर्थ्य भी है. पलटकर जवाब देना भी शामिल है.
तथागत बुद्ध, अंगुलिमाल और अहिंसा की बात इसलिए क्योंकि मौजूदा वक्त में इसकी ही बयार चल रही है. पहलगाम अटैक के बाद भारतीय सेना ने ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम दिया तो ‘बुद्ध का देश, अहिंसा का देश, शांति का देश बताकर और ‘अहिंसा परमो धर्म:’ की सूक्ति सुनाकर भारत को ही युद्ध का जिम्मेदार ठहराने की एक छल-छद्म कोशिश होने लगी है. ऐसा करने वाले बुद्ध और बौद्ध धर्म के विचारों को समझने में यहीं गलती कर जाते है.
अंहिसा पर तथागत बुद्ध के विचार और मौर्य साम्राज्य का इतिहास
जरूर बुद्ध ने अहिंसा की शिक्षा दी और हिंसा को गलत माना. उन्होंने अहिंसा को धम्म कहा लेकिन क्या बुद्ध ने अन्याय होने और इसे सहने को लेकर कुछ नहीं कहा? क्या बुद्ध ने दंड को परिभाषित नहीं किया है? या फिर क्या बुद्ध दूसरे पक्ष की ओर से थोपी जा रही हिंसा पर भी कुछ कहते हैं? इन सवालों के जवाब के लिए इतिहास के पन्ने पलटें तो एक कहानी मौर्य राजा बृहद्रथ की मिलती है. ईसा से 185 वर्ष पूर्व मगध में सम्राट बृहद्रथ का शासन था, जो थे तो राजा, लेकिन बुद्ध धर्म में दीक्षित होने के बाद उन्होंने ‘धम्म’ को ही सबसे ऊंचा माना और राजा के लिए जरूरी कर्तव्यों को तिलांजलि दे दी.
उस समय ग्रीक राजा डेमेट्रियस और उसका सेनापति मिनांडर भारतीय सीमा में प्रवेश कर चुके थे. इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में लिखते हैं कि, ‘मौर्य साम्राज्य अशोक की मृत्यु के बाद छिन्न-भिन्न हो गया और बृहद्रथ तक आते-आते यह सिर्फ मगध और पाटलिपुत्र तक सिमट कर रह गया था. अराजक स्थितियों के कारण जनता भी परेशान हो चुकी थी.’
मिनांडर का जिक्र करते हुए कई इतिहासकार लिखते हैं कि वह भारत में तेजी से फैले और अपनी जड़ें जमा चुके बौद्ध धर्म के प्रति बहुत उत्सुक और आकर्षित था. वह बौद्ध विहारों में भ्रमण के ही बहाने भारत में प्रवेश कर रहा था, लेकिन इतिहासकार सवाल उठाते हैं कि फिर वह अपने साथ बड़ी सेनाएं लेकर क्यों चल रहा था? क्या वह बौद्ध धर्म की आड़ में ही सैन्य अभियान भी चला रहा था? सम्राट बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र ने इस स्थिति को भांप लिया था और उसने छह महीने में सेना को युद्ध जैसी स्थितियों के लिए तैयार कर लिया, लेकिन सम्राट बृहद्रथ को यह सब रास नहीं आया. कहते हैं कि तलवार-ढाल और नेजों (भाले) से सजी अपनी सेना को देखकर बृहद्रथ क्रोध में चीखे- यह क्या है पुष्यमित्र? किसके आदेश पर तुमने यह सैन्यबल बनाया है?
पुष्यमित्र बोला- महाराज… शत्रु धोखे से अंदर घुसा आ रहा है, अखंड भारत क्या, मगध भी सुरक्षित नहीं है. डेमेट्रियस और मिनांडर से सतर्क रहना चाहिए.
बौद्ध धम्म की आड़ में आक्रमण की साजिश?
बृहद्रथ ये सुनकर चीखा और पुष्यमित्र की ओर झपटा. यहां ये बताना जरूरी है कि बार-बार चीखने और पुष्यमित्र पर झपटने वाला यही बृहद्रथ बौद्ध अनुयायी था, अहिंसा को मानने वाला था और शांति को ही धम्म (धर्म) समझता था, लेकिन इतने वर्षों तक बौद्ध होने के बावजूद वह क्रोध नहीं भूल पाया था. इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी, और उनके अलावा ईबी हवल ने अपनी किताब (आर्यन रूल इन इंडिया) में दर्ज किया है कि इसी मौके पर पुष्यमित्र ने बृहद्रथ को जमीन पर गिरा दिया और फिर तलवार से उसका सिर काटकर मौर्य साम्राज्य का अंत कर दिया. पुष्यमित्र ने शुंग वंश की नींव डाली और ग्रीक राजाओं के आक्रमण का एक वर्ष तक सामना करते हुए उन्हें वापस खदेड़ दिया.
185 ईसा पूर्व की यह ऐतिहासिक घटना साक्ष्यों के मामले में आज भले ही धुंधली पड़ चुकी है, लेकिन जिस तरह की स्थिति आज देश में चल रही है ऐसे में यह इतिहास बार-बार हमें आईना दिखा जाता है. यह ऐतिहासिक ब्यौरा इस बात को जाहिर करता है कि अहिंसा एक बेहद निजी विचार और निजी मान्यता है, लेकिन शांति व्यक्तिगत नहीं है. अगर दो पक्ष हैं तो दोनों को ही इसमें बराबरी से शामिल होना होगा. आप सिर्फ एक पक्ष से अहिंसा और शांति की उम्मीद नहीं कर सकते.
अहिंसा और शांति… फिर से इन्हीं शब्दों को लेकर आगे बढ़ते हैं तो सवाल उठता है कि चलो माना कि महात्मा बुद्ध ने अहिंसा की शिक्षा दी थी, लेकिन क्या उन्होंने ‘शांतिवाद’ की भी शिक्षा दी? क्या अहिंसा और शांति एक से लगने के बावजूद, बिल्कुल एक जैसे हैं?
कई प्रसिद्ध बाल साहित्य रचने वाले जाने-माने अमेरिकी लेखक पॉल फ्लैशमैन ‘बौद्ध विचारों’ को लेकर फैले भ्रम पर अधिक विस्तार से लिखते हुए इसी सवाल से शुरुआत करते हैं कि क्या हम ‘बुद्ध के अहिंसा’ के विचार को समझने में भूल तो नहीं कर रहे हैं? उनके मन में ये सवाल 11 सितंबर 2001 की दोपहर उपजा, जब न्यूयॉर्क ट्विन टॉवर पर आतंकी हमला हुआ. फ्लैशमैन एक लंबे आलेख में लिखते हैं कि ‘इस बड़े आतंकी हमले के बाद मैं खुद में अहिंसा, इसके योगदान, इसकी सीमाओं के बारे में सोचने लगा और मेरी सोच का दायरा वहां तक पहुंचा, जहां मैंने ये जानने की कोशिश की आखिर बुद्ध की शिक्षाओं में अहिंसा की हद क्या है? मैंने पाया कि मेरे कई मित्र अहिंसा को ही भ्रमवश शांतिवाद भी समझ लेते हैं.
फ्लैशमैन का आलेख काफी लंबा और विविधता से भरा हुआ है, लेकिन फिर भी उनके इस विचार पर ध्यान देना भारत के लिए और भारत की आज की परिस्थिति के लिए जरूरी हो जाता है. सवाल ये है कि क्या वाकई अहिंसा और शांति के बीच कोई बारीक रेखा है, या फिर दोनों एक से ही लगते हुए भी एक ही बातें क्यों नहीं हैं?
क्या कहते हैं बुद्ध के अहिंसा के संदेश?
इस सवाल का जवाब राजकुमार सिद्धार्थ से बुद्ध बनने वाली महान विभूति के जीवन चरित्र से भी मिल सकता है. सिद्धार्थ जो खुद राजपरिवार से निकले और फिर ज्ञान प्राप्त कर बुद्ध कहलाए. उन्होंने अपनी शिक्षाओं में जिस अहिंसा के संदेश को सबसे ऊपर रखा, वह उनकी शिक्षाओं की सबसे ऊपरी परत है. यह बौद्ध धर्म के पंचशील (पांच नैतिक नियमों) का पहला नियम है, जो कहता है:
“प्राणतिपात विरति”
यानी “प्राणियों की हत्या न करने का नियम” यह सिद्धांत केवल शारीरिक हिंसा से परहेज करने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें मानसिक और वचन से (बातों से) होने वाली हिंसा भी शामिल है. बुद्ध ने अहिंसा को करुणा और मैत्री के साथ जोड़ा, जो सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का भाव रखता है.
ध्यान देने वाली बात ये है कि इन शिक्षाओं के बावजूद बुद्ध ने राजाओं को कभी भी उनके कर्तव्यों से हटने के लिए नहीं कहा. इसके अलावा उन्होंने अपने उपदेशों के जरिए राज्यों के संविधान भी नहीं बदलवाए, बल्कि ऐसा भी नहीं हो गया कि बुद्ध के अहिंसा के उपदेशों के प्रभाव से किसी राज्य ने बिना राजा का होना स्वीकार कर लिया और ऐसी राजा विहीन शासन व्यवस्था बनाई, जिसमें राजा रहा ही न हो.
तथागत ने राजाओं को राज्य त्याग की सलाह और शिक्षा नहीं दी
बल्कि, बुद्ध के प्रभाव से अभिभूत हुए कई राजा थे, वे बुद्ध के समकालीन भी थे, लेकिन अहिंसा के विचार को अपनाने के बावजूद उन्होंने राज्य या सिंहासन नहीं छोड़ा, बल्कि बुद्ध ने भी किसी राजा को कभी भी ऐसा कोई उपदेश नहीं दिया कि उनके प्रभाव में आकर राजा हिंसा का त्याग करते हुए राज्य का या सिंहासन का भी त्याग कर दें. सबसे बड़े बौद्ध राजा के रूप में अशोक का नाम आता है. कलिंग युद्ध के बाद अशोक, शोक से भर गया और उसने तलवार फेंक दी.
अशोक ने भी धम्म अपनाया, लेकिन सम्राट बना रहा
इसके बाद अशोक ने ‘धम्म’ अपना लिया. उसने लोक कल्याण के कार्य कराए. विहारों को बहुत सा दान दिया और दुनियाभर में बौद्ध धम्म का प्रचार किया. उसकी पुत्री संघमित्रा और बेटे महेंद्र दोनों ने ही श्रमण परंपरा को अपनाते हुए धम्म का प्रचार किया, लेकिन अशोक? अशोक सम्राट बना रहा. उसने राज्य का त्याग नहीं किया. बेशक उसकी नीतियां पहले से बहुत कम कठोर रह गई होंगी, लेकिन राज्य के संचालन में जिस न्याय प्रियता और प्रजा पालन की बात की जाती है, दंड विधान उसका प्रमुख अंग है और राजाओं के हाथ में राज दंड इसी के प्रतीक हैं. यानी यहां हिंसा का एक स्वरूप मान्य रहा, जो राज्य संचालन के लिए जरूरी है.
हिंसा, दंड विधान, आत्मरक्षा और शांति
असल बात यह है कि बुद्ध ने शासकों को धर्म के आधार पर शासन करने की सलाह दी. यह जरूर है कि उनकी शिक्षाओं में युद्ध से बचने की बात और प्रजा की रक्षा शामिल थी. कूटदन्त सूत्र में, बुद्ध यह भी कहते हैं कि सामाजिक अन्याय (जैसे गरीबी) को कम करके हिंसा और युद्ध को रोका जा सकता है. हालांकि, इसे ऐसे देखना चाहिए कि बुद्ध ने यह भी स्वीकार किया कि शासकों को अपनी प्रजा की रक्षा के लिए कुछ उपाय करने पड़ सकते हैं, जो बेशक हिंसक हो सकते हैं. बौद्ध ग्रंथों में कोई स्पष्ट संदर्भ नहीं है जहां बुद्ध ने आत्मरक्षा के लिए हिंसा को उचित ठहराया हो लेकिन उन्होंने इसे अनुचित ही कहा हो यह भी स्पष्ट नहीं है. कूददंत सूत्र, दीर्घनिकाय सुत्त में एक पाठ है, जो सामाजिक न्याय से लेकर चक्रवर्ती राजा तक की बात करता है. यह बताता है कि एक आदर्श चक्रवर्ती राजा का जीवन कैसा होना चाहिए. यहां यह समझना चाहिए कि दंड विधान हिंसा नहीं है, हिंसा से अलग है.
भय बिनु होय न प्रीत… क्या कहती है रामचरित मानस
बौद्ध की महायान परंपरा में करुणा के लिए सीमित हिंसा को भी उचित माना गया. यह बात संत तुलसी दास की ‘भय बिनु होय ने प्रीत’ वाली लाइन से मैच कर जाती है. श्रीराम ने भी समुद्र से अहिंसक तरीके से ही विनती करते हुए रास्ता मांगा, लेकिन तीन दिन के निवेदन के बाद भी जब सागर ने नहीं सुना तो आखिर में उन्हें धनुष उठाना पड़ा. यानी राम पहले करुणा, विनय और अहिंसा का ही पालन कर रहे थे, धनुष भी उन्होंने सिर्फ डर दिखाने के लिए उठाया.
बुद्ध अपनी अहिंसा की शिक्षा में एक जगह खुद भी कुछ ऐसा ही कहते हैं.
सब्बे तसन्ती दंडस्य, सब्बे भायन्ती मच्चुनों,
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये । । 129। । (धम्मपद)
अर्थात दंड से सभी डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, इसलिए किसी को न मारें और न ही मारने की प्रेरणा दें.
सब्बे तसन्ती दंडस्य सब्बेस जीवितम पियं ,
अत्तानम उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये । । 130। । (धम्मपद)
अर्थात सभी दंड से डरते हैं, सभी को अपना जीवन प्रिय है.
क्या दंड देना हिंसा है?
इसमें ‘सभी दंड से डरते हैं’ वाली बात को भी मुख्य शिक्षा की ही तरह समझना चाहिए, कि जो किसी से नहीं डर रहा है, आखिर वह भी दंड से डर रहा है. दंड विधान, प्रजा पालन और सैन्य व्यवस्था के आदर्श उदाहरण को समझना हो तो रामायण के ही एक और पात्र को देखा जा सकता है. यह हैं देवी सीता के पिता राजा जनक. राजा होते हुए भी जनक को ऋषि का दर्जा मिला हुआ था. वह इतने प्रजा पालक और संयमी थे कि उनके राज्य में हिंसात्मक दंड विधान था ही नहीं.
राजर्षि जनक और अहिंसा
यहां तक की सेनाओं को भी जन सामान्य के बीच अभ्यास की इजाजत नहीं थी. इसलिए उनके छोटे भाई कुशध्वज, जो सेनापति भी थे वह सेना के साथ नगर के दूसरे छोर पर रहते थे. जनक के दरबार में विदुषी गार्गी, ऋषि गौतम, महर्षि अष्टावक्र, महाज ञानी दंडी जैसे विद्वानों की भीड़ थी और धर्म के मूल स्वरूप पर गहन चर्चाएं होती थीं. राज्य और समाज ऐसा हो तो हिंसा और हिंसात्मक दंड की कोई जरूरत वैसे भी नहीं पड़ेगी.
…लेकिन थोपे गए युद्ध का क्या है विकल्प?
फिर भी सवाल तो दूसरे देश, उसकी नीति और उसकी जनता का है. सवाल इस बात का भी है कि वह आपके साथ कैसा रुख और कैसा व्यवहार करते हैं? बात सिर्फ दो व्यक्तियों की हो तो अहिंसा का आदर्श समझ भी आता है, लेकिन पूरा एक देश या समाज ही हिंसक हो तो क्या अगले को आत्मरक्षा के लिए भी हिंसा मान्य नहीं हैं. यहां फिर से बुद्ध को बीच में ले आते हैं और उनके ही उपदेशों में इसका हल खोजें तो बुध ने ही अहिंसा से पहले अन्याय के लिए उपदेश दिया है. उन्होंने इसे धर्म सम्मत नहीं माना है. यह अन्याय एक व्यक्ति का दूसरे के प्रति, एक राजा का प्रजा के प्रति और एक देश का दूसरे देश के प्रति भी हो सकता है. इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती है, लेकिन इसकी मूल शिक्षा ‘अन्याय’ को अधर्म मानने की है.
अंकोच्छी मं अवधि मं अजिनि मं अहासि में,
ये च तं उपन्यहंति वेरं तेसं न सम्मति ।। 3।। (धम्मपद)
बुद्ध कहते हैं कि उसने मुझे डांटा, उसने मुझे मारा, उसने मुझे जीत लिया, उसने मेरा सब कुछ लूट लिया, जो भी मनुष्य ऐसा मन में बनाए रखते हैं, उनका वैर कभी शांत नही होता, लेकिन बात यहां निजी वैर की नहीं है, बात है एक देश की अस्मिता और उसके लोगों की रक्षा की. अगर एक देश अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए जवाबदेह नहीं बनेगा तो उस देश की संप्रभुता भी तो खतरे में पड़ेगी. आखिर, वह बुद्ध का देश बनते हुए कब तक निर्दोषों को मारने वाले दोषियों को क्षमा करता रहेगा. यहां महाभारत से ऐसा ही एक प्रसंग निकल कर सामने आता है.
महाभारत में क्षमाधर्म की शिक्षा
द्रौपदी के चीरहरण के बाद राज्य से निकाले गए पांडव वन में जीवन बिता रहे थे. एक दिन द्रौपदी अपनी इस स्थिति पर खीझ गई और युद्ध के लिए पांडवों पर दबाव डालने लगी, तब युधिष्ठिर ने शालीन शब्दों में द्रौपदी को समझाते हुए वेदों के सूक्त कहा. उन्होंने कहा, क्षमा सबसे बड़ा धर्म है द्रौपदी, क्षमा दान है. क्षमा ही पुण्य है और क्षमा ही वीरों का गुण है. हम वीर हैं, इसलिए वन में हैं और कौरवों के आतंक को चरम पर पहुंचने दो तो हम उसे दंड भी देंगे. अगर हमने अभी युद्ध छेड़ा तो यह हमारा निजी स्वार्थ के लिए लड़ा युद्ध होगा, लेकिन हम युद्ध तब करेंगे जब यह समाज के लिए जरूरी हो जाएगा. यह समाज को एक कुरीति से निकालने के लिए और धर्म की स्थापना के लिए किया जाने वाला युद्ध होगा. महाभारत का शांति पर्व भी इसी की बात करता है.
क्षमा, आतंक और अत्याचार पर रामधारी सिंह दिनकर क्या कहते हैं, उनकी इस कविता से समझना चाहिए.
अत्याचार सहन करने का
कुफल यही होता है
पौरुष का आतंक मनुज
कोमल होकर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।
सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।
महात्मा बुद्ध से बात शुरू हुई है तो फिर से उन पर ही लौटते हैं. बुद्ध ने कर्म सिद्धांत में कहा कि कर्म का फल उसके पीछे के इरादे (चेतना) पर निर्भर है. अगर आत्मरक्षा के लिए हिंसा जरूरी है उसमें क्रोध, द्वेष, या हिंसा का आनंद नहीं है तो यह अहिंसा के सिद्धांत से हटना नहीं माना जाता है. हालांकि तुरंत बाद ही वह यह भी कहते हैं कि
‘न हि वेरो वेरेण संमति कदाचि, अवेरेन च संमति.’धम्मपद (श्लोक 124)
(हिंसा से हिंसा कभी शांत नहीं होती, केवल अहिंसा से ही शांति मिलती है.)
महावग्ग की कथा… सांप डंस रहा हो तो क्या करें?
यहां बुद्ध यह कहते हैं कि यदि आत्मरक्षा या किसी की रक्षा के लिए हिंसा होती है, तो वह करुणा से प्रेरित होनी चाहिए, न कि द्वेष से. महावग्ग पाली में एक कथा है, जहां एक भिक्षु को सांप काट रहा होता है तब की स्थिति में क्या किया जा सकता है. सांप को मारने से हिंसा होगी, और सांप को नहीं मारा तो भिक्षु नहीं बचेगा तो यह जानी-समझी हिंसा होगी. इस कथा से यह संदेश स्पष्ट हो जाना चाहिए, रक्षा के लिए न्यूनतम बल प्रयोग तो किया ही जा सकता है, बशर्ते वह द्वेषमुक्त हो.
क्या है अहिंसा की हद?
यहां न्यूनता की मात्रा कितनी होनी चाहिए? कौन तय करेगा? इसका जवाब होना चाहिए, यह इस आधार पर तय हो कि ‘सांप कितना जहरीला है.’ विनय पिटक में बुद्ध ने भिक्षु संघ में अपराधियों के लिए दंड के बजाय सुधार और निर्वासन जैसे अहिंसक उपाय सुझाए हैं, बुद्ध ने शासकों को भी सलाह दी कि दंड न्यूनतम और सुधारात्मक हो. चक्कवत्ति सिंहनाद सुत्त में वे कहते हैं कि एक आदर्श शासक दंड के बजाय प्रजा को आर्थिक और नैतिक समृद्धि देता है, जिससे अपराध कम होते हैं, लेकिन यह बात राजा की अपनी प्रजा के लिए है, न कि युद्ध थोप देने वाले किसी अन्य देश या राज्य के लिए.
बुद्ध के लिए दंड भी हिंसा, लेकिन सुधार के लिए आखिरी उपाय
बुद्ध दंड को हिंसा का हिस्सा मानते हैं और इसे अंतिम उपाय के रूप में, करुणा और सुधार के साथ प्रयोग करने की सलाह देते हैं. यहां यह याद रखना चाहिए कि गीता भी कर्म सूत्र का बखान करते हुए यह कहती है कि युद्ध शांति का सबसे आखिरी विकल्प है, लेकिन युद्ध आखिर एक विकल्प तो है ही, भले ही आखिरी क्यों न हो. श्रीकृष्ण गीता में दंड को राजधर्म का अनिवार्य हिस्सा मानते हैं, क्योंकि यह समाज में व्यवस्था और न्याय बनाए रखता है. हालांकि, दंड निष्पक्ष और धर्मानुकूल होना चाहिए. यानी इस बारे में श्रीकृष्ण और बुद्ध एक मत रखते हैं.
…लेकिन क्या कहते हैं श्रीकृष्ण?
श्रीकृष्ण कहते हैं कि दंड तब हिंसा नहीं, बल्कि धर्म है, जब वह समाज की रक्षा और अधर्म के दमन के लिए हो. इसी तरह गीता के अध्याय 2 के श्लोक 31 में वह अर्जुन से कहते हैं कि, एक शासक या क्षत्रिय का कर्तव्य है कि वह अधर्मी को दंड दे, बिना व्यक्तिगत द्वेष के. यह समाज में शांति और न्याय के लिए आवश्यक है. यानी दंड हिंसा का रूप नहीं है और इसे उससे अलग देखा ही जाना चाहिए.
सामाजिक व्यवस्था का आधार है दंड
ऋग्वेद और यजुर्वेद में भी दंड को सामाजिक व्यवस्था का आधार माना गया है. ऋग्वेद के दशम मंडल में कहा गया है कि राजा को दंड के माध्यम से अधर्म का दमन करना चाहिए ताकि धर्म और शांति बनी रहे. वहीं, आचार्य चाणक्य का अर्थशास्त्र कहता है कि ‘दण्डेन विश्वं संनादति, धर्मः स्थापति: (दंड का नाद विश्व में गूंजता है, और धर्म स्थापित होता है)’
बौद्ध धम्म, अहिंसा और मार्शल आर्ट
इन सभी विचारों के बाद बुद्ध के मूल अहिंसा के विचार पर चलते हैं और फिर बौद्ध धर्म के अनुयायी देशों की तरफ देखें तो बौद्ध धम्म का अलग ही स्वरूप नजर आता है. जापान में जेन बौद्ध धर्म, समुराई, और मार्शल आर्ट्स ये सभी एक ही पंक्ति में एक साथ लिखे जाने वाले शब्द हैं. मार्शल आर्ट एक युद्ध कौशल है, तो फिर बौद्ध धम्म और बौद्ध भिक्षुओं से उसका क्या जुड़ाव? लेकिन असल में मार्शल आर्ट्स की कला को एक भारतीय बौद्ध भिक्षु महाबोधि ही चीन लेकर गए थे और फिर वहां से ही यह जापान भी पहुंचा. मार्शल आर्ट को हिंसा का नहीं, बल्कि आत्म चेतना का साधन माना जाता है, और यह इसलिए जरूरी है क्योंकि स्वस्थ शरीर से ही साधना की जा सकती है.
वेद भी कहते हैं ‘शरीर माद्यं खलु धर्म साधनम्.’ यानी धर्म को साधने का साधन स्वस्थ शरीर ही है. इसका हिंसा से कोई लेना देना नहीं है. हिंसा का दंड से कोई संबंध नहीं है और दंड आततायी के लिए जरूरी हो जाता है, क्योंकि अहिंसा व्यक्तिगत विचार हो सकता है, शांति विश्व की जरूरत है और शांति स्थापना के लिए युद्ध आखिरी ही सही लेकिन एक विकल्प है, और युद्ध जब थोपा गया हो तो उसे हिंसा कहकर खारिज नहीं करना चाहिए.
‘युद्ध बुरा है’, यह शांतिपाठ शांति में ही अच्छा लगता है, तब नहीं जब सेनाएं सीमा पर तैनात हों. अहिंसा परमो धर्म: लेकिन, ये बात अगले को कैसे सिखाई जाए? यह बड़ा सवाल है.